हाईकोर्ट ने रेप पीड़िताओं के मामले में कहा है कि उन्हें उनके अधिकारों के बारे में नहीं बताया जाता है। इसके चलते उन्हें मजबूरी में बच्चे को जन्म देना पड़ता है। ऐसे में अब अदालत इस मामले में विस्तृत दिशा-निर्देश जारी करेगी।
मुख्य न्यायाधीश एमएम श्रीवास्तव और जस्टिस उमाशंकर व्यास की खंडपीठ ने यह टिप्पणी नाबालिग रेप पीड़िता के गर्भपात की अपील पर सुनवाई करते हुए की। अदालत ने कहा कि इस मामले में नाबालिग पीड़िता 31 सप्ताह की प्रेग्नेंट है। मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार अगर उसे गर्भपात की अनुमति दी जाती है तो उसे और बच्चे को जान का खतरा है।
ऐसे में उसकी अपील को खारिज किया जाता है, लेकिन अदालत इस तरह के मामलों में आवश्यक दिशा-निर्देश जारी करना चाहती है। इसलिए गर्भपात के मामले में स्वप्रेरित प्रसंज्ञान लेकर अदालत इस मुद्दे पर सुनवाई करेगी।
24 हफ्ते से पहले कोर्ट की अनुमति जरूरी नहीं हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि अदालत में गर्भपात की अनुमति के लिए बड़ी संख्या में याचिकाएं दायर होती है। चाहे वह बालिग हो या नाबालिग। अधिकतर महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं है।
खासतौर पर यौन उत्पीड़न की शिकार नाबालिग को पुलिस और संबंधित एजेंसी उनके अधिकार के बारे में नहीं बताती है। जिसके चलते उन्हें न चाहते हुए भी मजबूरी में बच्चे को जन्म देना पड़ता है।
अदालत ने कहा कि दी मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 में साफ कहा गया है कि 24 हफ्ते की प्रेग्नेंसी से पहले गर्भपात के लिए अदालत की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है। इसके बाद अदालत से अनुमति लेनी होती है।
मानव तस्करी के बाद रेप पीड़िता की वकील नैना सराफ ने बताया कि इस मामले में बिहार की नाबालिग पीड़िता को तस्करी के बाद कोटा लाया गया था। यहां उसके बाद उससे अवैध संबंध बनाए गए थे। पुलिस ने पीड़िता को आरोपियों के चुंगल से छुड़ाया। उसे सीडब्ल्यूसी के समक्ष पेश करके बालिका गृह भेजा गया था।
पीड़िता के गर्भवती होने के बाद उसने गर्भपात के लिए एकलपीठ में याचिका दायर की थी। मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर एकलपीठ ने उसकी याचिका को खारिज कर दिया था। जिसके खिलाफ उसने खंडपीठ में अपील दायर की थी।