‘लोग कहते थे न तुम चल सकते हो न कोई भारी-भरकम काम करने में सक्षम हो…ताने देते थे तुम तो व्हीलचेयर पर घूम-घूमकर सामान बेचना….क्रिकेट तुम्हारे बस का नहीं है। आज उसी व्हीलचेयर पर बैठकर चौके-छक्के लगाता हूं तो स्टेडियम तालियों से गूंज उठता है। ताना मारने वालों की बोलती बंद हो जाती है।’
ये कहानी जयपुर के चौगान स्टेडियम में चल रहे नेशनल व्हीलचेयर क्रिकेट टूर्नामेंट में राजस्थान टीम से खेल रहे दिव्यांग खिलाड़ी जुबैर की है। जुबैर के इस संघर्ष उनका 10 साल का बेटे उमर ने जबरदस्त भूमिका निभाई। कभी पिता की व्हील चेयर को संभाला तो कभी घर की छत पर नेट लगाकर बल्लेबाजी की प्रैक्टिस करवाई।
जुबैर की तरह पृथ्वी सिंह को भी ऐसे ही संघर्षों का सामना करना पड़ा। आज ये दिव्यांग क्रिकेट की टीम राजस्थान के बेहतरीन खिलाड़ियों में शुमार हैं। पृथ्वी सिंह तो भारत के लिए नेशनल लेवल तक खेल चुके हैं। भास्कर ने टूर्नामेंट के दौरान दोनों खिलाड़ियों से बात कर उनके संघर्ष की कहानी जानी…
जुबैर (28) बचपन से ही दिव्यांग हैं। पैरों पर खड़े नहीं हो पाते। लेकिन उनका हौसला और उनके बेटे का प्यार उनके पैरों से भी ज्यादा ताकतवर बन गया। जुबैर के 10 साल के बेटे ने स्कूल के बाद अपनी किताबों को परे रख, अपने पिता के हाथ में बैट थमाकर कोच की भूमिका निभाई। हर टूर्नामेंट से पहले डमी बॉलर बनकर प्रैक्टिस करवाई। आज जुबैर दिव्यांग क्रिकेटर्स की राजस्थान टीम के बेहतरीन बल्लेबाजों में से एक हैं।
मूल रूप से अलवर के तिजारा के बगथला गांव के रहने वाले जुबैर ने बताया- मुझे बचपन से क्रिकेट खेलने का शौक था। टीवी पर भारत और पाकिस्तान के मैच देखकर ख्वाब बुनता थी कि काश मैं भी क्रिकेट खेल पाता। लेकिन गांव वालों और समाज ने दिव्यांगता के कारण हमेशा ताने ही दिए। ‘लोग कहते थे, तुम भाग नहीं सकते, फील्डिंग नहीं कर सकते, खेल तुम्हारे लायक नहीं है। लोग यहां तक कहते थे कि व्हीलचेयर पर सामान बेचकर गुजारा करना।
माता-पिता ने भी कुछ और करने की सलाह देते। कहते- तुम दिव्यांग हो, भागा नहीं जाएगा, फील्डिंग नहीं होगी, यह खेल तुम्हारे लायक नहीं है। तानों के बाद मैंने खुद को समझा लिया था कि शायद खेल उनके लिए वास्तव में नहीं है।
11 साल पहले शादी हुई। बेटा हुआ। मैं क्रिकेट के ख्वाब अपने मन में लिए घूमता था। बेटा बड़ा हुआ तो गली में क्रिकेट खेलने लगा। घर आकर मुझसे पूछता कि पापा आप हमारी तरह क्यों नहीं खेल पाते हो। खड़े होकर फील्डिंग और बैटिंग क्यों नहीं करते हो। तब मैं सिर्फ यही कहता कि मेरे पैर काम नहीं करते। अगर मेरे पैर सही होते तो मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी तरह जरूर खेलता।
दोस्त ने फोन कर बताया- ट्रायल चल रहे हैं, पहले मौके ने बदल दी जिंदगी
जुबैर ने बताया- कहते है न तकदीर में अगर मौका लिखा हो तो वो एक न एक दिन जरूर मिलता है। एक दिन मेरे दोस्त का फोन आया। उसने कहा कि दिव्यांग क्रिकेट में डिस्ट्रिक्ट लेवल के ट्रायल्स चल रहे हैं। पहले तो मैं झिझका, लेकिन दोस्त ने हिम्मत बंधाई। उसके कहने पर ट्रायल देने गया। प्रदर्शन शानदार रहा और मैं सिलेक्ट हो गया। यही वो मौका था जिसकी मुझे तलाश थी। घर लौटा तो मेरे पास एक गजब का आत्मविश्वास था। यही मेरे लिए टर्निंग पॉइंट बना। जिला लेवल पर क्रिकेट खेला।
जब घरवालों और लोगों ने मुझे व्हील चेयर पर बैठकर चौके-छक्के लगाते देखा तो वे भी दंग रह गए। इसके बाद मैंने राजस्थान टीम के लिए ट्रायल्स में हिस्सा लिया। नारायण सेवा संस्थान के बैनर तले मेरा सिलेक्शन नेशनल लेवल के लिए हुआ। अब तीन साल हो गए क्रिकेट खेलते हुए। लगातार अपने खेल को सुधार रहा हूं।
पापा के नेशनल खेलते देखना है- इसलिए करवाता हूं प्रैक्टिस
जुबैर ने बताया कि इस सफर में मेरा बेटा उमर फारूक सबसे बड़ा मददगार बना। उसने मेरे कोच की भूमिका भी निभाई और मेरे सपने को कभी टूटने नहीं दिया। उमर ने न केवल अपने पिता की प्रैक्टिस में मदद की, बल्कि खुद भी क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया।
उमर फारूक ने बताया ‘मैं रोज घर की छत पर अपने पापा को प्रैक्टिस कराता हूं। उनके लिए बॉलिंग करते हुए नेट प्रैक्टिस करवाता हूं और पापा बैटिंग कर चौके-छक्के जमाते हैं।
जुबैर ने बताया कि उमर मेरा सपोर्ट सिस्टम है। जब भी टूर्नामेंट होता है, मेरी व्हीलचेयर खींचने से लेकर प्रैक्टिस तक के सारे काम वही करता है। हम दोनों के इस अभ्यास को देखकर आसपास के लोग दंग रह जाते हैं।
सपने पूरे करने के लिए अभी संघर्ष बाकी
जुबैर ने बताया कि मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। बीए द्वितीय वर्ष में पढ़ाई के साथ-साथ मेरे पास रोजगार का कोई ठोस साधन नहीं है। घर में बेटे उमर के अलावा पत्नी और एक सात साल की बेटी है। पत्नी सिलाई करके थोड़ा बहुत कमा लेती है।
बाकी सरकार की तरफ से दिव्यांगों को मिलने वाली पेंशन के भरोसे ही घर चलता है। लेकिन अभी तो दो महिने से वो भी नहीं मिल रही है। ऐसे में घर चलाना मुश्किल होता है। मेरा सपना है कि भारत के लिए खेलूं। अपने परिवार की जिंदगी बेहतर बना सकूं।
उमर अपने पापा की तारीफ करते हुए कहता है कि ‘जब मेरे पापा क्रिकेट खेलते हैं, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। पापा बहुत अच्छा खेलते हैं। मै चाहता हूं पापा इंडिया के लिए खेलें और पूरी दुनिया उनके बारे में जाने।
पढ़ाई के पैसे नहीं थे, अस्पताल के बाहर ट्राइसाइकिल पर चलाया एसटीडी सेंटर
दिव्यांग क्रिकेट की भारतीय टीम में खेल चुके पृथ्वी सिंह (44) की कहानी भी कुछ ऐसी है। कोटपूतली के छोटे से गांव किरोदोद में किसान परिवार में जन्मे पृथ्वी जब दो-तीन साल के थे तब तेज बुखार होने पर गलत इंजेक्शन की वजह से पोलियो हो गया था। पैर टेढ़े होने के कारण पृथ्वी चल नहीं पाते थे। लेकिन पोलियो ग्रस्त होने के बाद भी पृथ्वी ने हार नहीं मानी। स्कूल में पढ़ाई के लिए रोज व्हीलचेयर पर 5-6 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता था। यही वो शुरुआती संघर्ष था जिसने पृथ्वी को और मजबूत बना दिया।
पृथ्वी ने बताया कि घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। आगे की पढ़ाई के लिए 2001 में जयपुर आ गए। भवानी निकेतन कॉलेज में प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया। अगले साल आर्थिक तंगी के कारण रेगुलर पढ़ाई करना संभव नहीं था। लेकिन दिव्यांगता के कारण कोई नौकरी देने को तैयार नहीं था।
ऐसे में जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल के सामने अपनी ट्राईसाइकिल पर ही चलता-फिरता एसटीडी (लेंडलाइन फोन) सेंटर खोल लिया। उस दौरान कॉलेज में प्राइवेट पढ़ाई भी जारी रखी। वर्ष 2002 में रामनिवास बाग से जवाहर सर्किल तक ट्राई साइकिल दौड़ कार्रवाई गई। जिसमें मैंने पहली बार पहला स्थान प्राप्त किया। इस रेस ने मुझे आत्मविश्वास से इतना भर दिया कि मैंने कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया। ऑल इंडिया विकलांग ट्राई साइकिल दौड़ में स्वर्ण पदक भी जीता।
खेल से ही मिली जीवनसाथी
मुझे क्रिकेट का बहुत शौक था। यही वो खेल था जिसे में जीना चाहता था। बचपन से लोगों को क्रिकेट खेलते देखकर मन में इच्छा होती थी कि मैं भी कभी चौके-छक्के लगाऊं। खुशकिस्मती से वो मौका भी मेरे जीवन में आया। पहले दिव्यांगों के लिए केवल ट्राई साइकिल रेस होती थी। कुछ साल पहले दिव्यांग क्रिकेट के ट्रायल शुरु हुए। उसमें मेरा सिलेक्शन हुआ। फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं नेशनल खेल चुका हूं। अभी राजस्थान टीम का हिस्सा हूं।
इसी खेल की बदौलत पृथ्वी को अपनी जीवनसाथी भी मिली। पृथ्वी ने बताया कि उनकी पत्नी उमा से मुलाकात एक ट्राईसाइकिल रेस के टूर्नामेंट में हुई थी। ये पहली मुलाकात ही प्यार में बदल गई। उमा भी दिव्यांग हैं। परिवार के लाख विरोध के बाद भी पृथ्वी और उमा ने शादी कर ली। उमा पहले घर संभालती थीं। लेकिन पृथ्वी के प्रोत्साहित करने के बाद वे भी पूरी तरीके से स्पोर्ट्स में आ गईं। दोनों पति-पत्नी ने कई मेडल जीतें हैं। स्पोर्ट्स कोटे से पृथ्वी को सरकारी नौकरी भी मिल गई पृथ्वी कृषि पर्यवेक्षक है। वहीं उनकी पत्नी रोजगार कार्यालय में एलडीसी के पद पर सेवा दें रहीं है।